अथ-चाणक-का-अंग-ath
अथ चाणक का अंग | Ath Chanak Ka Ang | Amargranth Sahib by Sant Rampal Ji Maharaj
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कबीर, जीव बिलंब्या जीव सौं, अलख न लखिया जाय। गोविन्द मिलै न झल बूझे, रही बुझाय बुझाय।।1।।
कबीर, इस उदर के कारनै, जगत जाँच्यो निश याम। स्वामी पणौं जु सिर चढ्यौ, सर्यौ न एको काम।।2।।
कबीर, स्वामी होंणां सोहरा, दोहरा होंणां दास। गाडर आनी ऊंन कूं, बांधी चरै कपास।।3।।
कबीर, स्वामी हूवा सीत का, पैसे कार पचास। राम नाम कांठै रह्या, करे शिष्यां की आश।।4।।
कबीर, तृष्णा टोकणी, लिया फिरै सुभाय। राम नाम चीन्हैं नहीं, पीतल ही कै चाय।।5।।
कबीर, कलि का स्वामी लोभीया, मनसा रहे बधाय। देहीं पैसा ब्याज कूँ, लेखा करता जाय।।6।।
कबीर, कलि का स्वामी लोभीया, पीतल धरै खटाय। राज द्वारै यौं फिरै, ज्यौं हरियाई गाय।।7।।
कबीर, कलियुग आईया, मुनिवर मिलै न कोय। लोभी लालची मसकरा, तिनको आदर होय।।8।।
कबीर, चार बेद पण्डित पढ्या, हरि सौं किया न हेत। बाल कबीरा ले गया, पण्डित ढूंढै खेत।।9।।
कबीर, ब्राह्यण गुरु जगत का, कर्म धर्म का खाय। उलझ पुलझ कर मर गया, च्यारौं बेदां माहीं।।10।।
कबीर, कलि का ब्राह्यण मसकरा, ताहि न दीजै दान। कुटुंब सहित नरके चला, साथ लिया यजमान।।11।।
कबीर, ब्राह्यण बूड़ा बापुड़ा, जनेऊ कै जोर। लख चौरासी मांग लई, पारब्रह्म से तोर।।12।।
कबीर, साकट सण का जेवड़ा, भीग्यां तैं करड़ाय। राम नाम से खिज मरै, बांध्या जमपुर जाय।।13।।
कबीर, साकट की सभा, तूं ना बैठै जाय। एकहि बाड़ै ठीक नहीं, रोझ गदहड़ा गाय।।14।।
कबीर, साकट से शूकर भला, सूचा राखैं गांव। बूड़ा साकट बापड़ा, बैठकर फूटी नांव।।15।।
कबीर, साकट ब्राह्मण ना मिलै, मिलै सतगुरू दीन दयाल। अंक माल दे भेटिये, मांनौं मिले गोपाल।।16।।
कबीर, पाड़ोसी से रूसणां, तिल तिल सुख की हान। आधीनी राह गहै, यही संत की पिछान।।17।।
कबीर, ब्यास कथा कहैं, भीतर भेदैं नाहीं। औरौं कूँ प्रमोधता, गये नरक के माहीं।।18।।
कबीर, चतुराई सूवै पढी, सोई पंजर माहीं। फिर प्रमोधै आन कूं, आपन समझै नाहीं।।19।।
कबीर, रास पराई राखतां, खाया घर का खेत। औरौं कूँ प्रमोधतां, मुंहड़ै पड़ गया रेत।।20।।
कबीर, कहै पीर कूं, तूं समझावैं सब कोय। संसा पढेगा आप कूं, तौ और कहें क्या होय।।21।।
कबीर, तारा मंडल बैठ के, चाँद बड़ाई खाय। उदय भया जब सूरज का, स्यौं तारौं छिप जाय।।22।।
कबीर, देखन के सबको भले, जैसे सीत के कोट। रवि कै उदय न दीस हीं, बंधै न जल की पोट।।23।।
कबीर, सुनत सुनावत दिन गये, उलझ न सुलझ्या मन। कहै कबीर चेत्या नहीं, अजहूं पहला दिन।।24।।
कबीर, तीर्थ कर कर जग मुवा, ऊड़ै पानी न्हाय। रामहि राम ना जपा, काल घसीटें जाय।।25।।
कबीर, गंगा कांठै घर करैं, पीवै निर्मल नीर। मुक्ति नहीं हरि नाम बिन, यौं कहै रहे साच कबीर।।26।।
कबीर, इस संसार को, समझाऊँ कै बार। पूंछ जो पकड़ैं भेड़ की, उतर्या चाहैं दरिया पार।।27।।
कबीर, पद गाया मन हर्षिया, साखी कह्या आनंद। सो तत नाम न जांनिया, गल में पड़ गया फंध।।28।।
कबीर, मन फूल्या फिरै, करता हूंर धर्म। कोटि कर्म ले चल्या, चेत न देखै भ्रम।।29।।
कबीर, कथनी कथी तो क्या भया, जे करणी ना ठहराय। बालू के कोट ज्यों, देखत ही ढह ज
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